“राजयोग मेडिटेशन कोर्स चौथा दिन”

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📚 सर्वशास्त्र शिरोमणि श्रीमद भगवद गीता का ज्ञान-दाता कौन है ❓

📖 यह कितने आश्चर्य की बात है की आज मनुष्य मात्र को यह भी मालूम नहीं कि परमप्रिय परमात्मा शिव, जिन्हें “ज्ञान का सागर” तथा “कल्याणकारी” माना जाता है, उसने मनुष्यमात्र  के कल्याण के लिए जो ज्ञान दिया, उसका शास्त्र कौन-सा है❔ भारत में यद्यपि गीता ज्ञान को भगवान द्वारा दिया हुआ ज्ञान माना जाता है, तो आज भी सभी लोग यही मानते हैं की गीता ज्ञान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग के अंत में युद्ध के मैदान में, अर्जुन के रथ पर सवार होकर दिया था। जब की वास्तविकता यह है कि गीता-ज्ञान द्वापर युग में नहीं दिया गया, बल्कि संगमयुग में दिया गया

📖 चित्र में यह अदभुत रहस्य चित्रित किया गया है की वास्तव में गीता-ज्ञान निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था। फिर गीता ज्ञान से सतयुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। अत: गोपेश्वर परमपिता शिव श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता हैं और गीता श्रीकृष्ण की भी माता है।

📖 यह तो सभी जानते हैं की गीता-ज्ञान देने का उद्देश्य पृथ्वी पर धर्म की पुन: स्थापना करना ही था। गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि “मैं अधर्म का विनाश तथा सत्य धर्म की स्थापनार्थ ही अवतरित होता हूँ।” अत: भगवान के अवतरित होने तथा गीता ज्ञान देने के बाद तो धर्म की तथा दैवी स्वभाव वाले सम्प्रदाय की पुन: स्थापना होनी चाहिए। परन्तु सभी जानते हैं की द्वापरयुग के बाद तो कलियुग ही शुरू हुआ। जिसमें तो धर्म की अधिक हानि हुई और मनुष्यों का स्वभाव तमोप्रधान अथवा आसुरी हुआ।

📖 अत: जो लोग यह मानते हैं की भगवान ने गीता ज्ञान द्वापरयुग के अंत में दिया, उन्हें सोचना चाहिए की क्या गीता ज्ञान देने और भगवान के अवतरित होने का यही फल हुआ ❔ क्या गीता ज्ञान देने के बाद अधर्म का युग प्रारम्भ हुआ❔

📖 भगवान के अवतरण होने के बाद कलयुग का प्रारंभ मानना तो भगवान की ग्लानि करना है, क्योंकि भगवान का यथार्थ परिचय तो यह है की वे अवतरित होकर पृथ्वी को असुरों से खाली करते हैं और यहाँ धर्म को पूर्ण कलाओं सहित स्थापित करके नर को श्रीनारायण और नारी को श्री लक्ष्मी बनाकर मनुष्य की सदगति करते हैं।

📖 भगवान तो सृष्टि के “बीज रूप” हैं। अत: इस धरती पर उनके आने के पश्चात तो नए सृष्टि-वृक्ष, अर्थात नई सतयुगी सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। इसके अतिरिक्त, यदि द्वापर के अन्त में गीता ज्ञान दिया गया होता तो कलयुग के तमोप्रधान काल में तो उसकी प्रारब्ध ही न भोगी जा सकती।

📖 दिवाली के दिनो में श्री लक्ष्मी का आह्वान करने के लिए भारतवासी अपने घरों को साफ-सुथरा करते हैं। तथा दीपक आदि जलाते हैं। इससे स्पष्ट है की अपवित्रता और अंधकार वाले स्थान पर तो देवता अपने चरण भी नहीं रखते। अत: श्रीकृष्ण का अर्थात लक्ष्मीपति श्रीनारायण का जन्म द्वापर में मानना महान भूल है। उनका जन्म तो सतयुग में हुआ। तब उनके सभी मित्र-सम्बन्धी तथा प्रकृति-पदार्थ सतोप्रधान एवं दिव्य थे। और सभी का आत्मा-रूपी दीपक जगा हुआ था। सृष्टि में कोई भी म्लेच्छ तथा क्लेश नहीं था।

📖 अत: उपर्युक्त  तथ्यों से स्पष्ट है की न तो श्री कृष्ण द्वापरयुग में हुए और न ही गीता-ज्ञान द्वापर युग के अंत में दिया गया। बल्कि निराकार, पतित पावन परमात्मा शिव ने कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के संगम समय पर, धर्म-ग्लानि के समय, बह्मा तन में दिव्य जन्म लिया और गीता-ज्ञान देकर सतयुग की तथा श्रीकृष्ण (श्री नारायण) के स्वराज्य की स्थापना की। श्रीकृष्ण के तो अपने माता-पिता, शिक्षक थे। परन्तु गीता-ज्ञान सर्व आत्माओं के माता-पिता शिव ने दिया है।

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📚 गीता-ज्ञान हिंसक युद्ध करने के लिए नहीं दिया गया था।

📖 आज परमात्मा के दिव्य जन्म और “रथ” के स्वरुप को न जानने के कारण लोगों की यह मान्यता दृढ़ है कि गीता-ज्ञान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ में सवार होकर लड़ाई के मैदान में दिया। आप ही सोचिये कि अहिंसा को धर्म का परम लक्षण मानते हुए “अहिंसा परमो धर्मः” की बात कही गयी है और धर्मात्मा अथवा महात्मा लोग अहिंसा का पालन करते हैं और अहिंसा की शिक्षा देते हैं। तब क्या भगवान ने भला किसी हिंसक युद्ध के लिए किसी को शिक्षा दी होगी ❔ जबकि लौकिक पिता भी अपने बच्चों को यह शिक्षा देता है कि परस्पर कभी ना लड़ो, तो क्या सृष्टि के परमपिता, शांति के सागर परमात्मा ने मनुष्यो को परस्पर लड़ाया होगा ❔ (जैसा महाभारत युद्ध में दिखाया है) यह तो कदापी नहीं हो सकता।

📖 भगवान तो दैवी स्वभाव वाले संप्रदाय की तथा सर्वोत्तम धर्म की स्थापना के लिए ही गीता-ज्ञान देते हैं। उससे तो मनुष्य राग (आसक्ति), द्वेष, हिंसा और क्रोध इत्यादि पर विजय प्राप्त करते हैं अत: वास्तविकता यह है कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने इस सृष्टि रूपी कर्मक्षेत्र अथवा कुरुक्षेत्र पर, प्रजापिता ब्रह्मा (अर्जुन) के शरीर रूपी रथ में सवार होकर माया अर्थात पांच विकारों से ही युद्ध करने की शिक्षा दी थी, परन्तु लेखक ने बाद में अलंकारिक भाषा में इसका वर्णन किया। तथा चित्रकारों ने बाद में शरीर को रथ के रूप में अंकित करके प्रजापिता ब्रह्मा की आत्मा को भी उस रथ में एक मनुष्य (अर्जुन) के रूप में चित्रित किया। इसलिए वास्तविक रहस्य प्राय: लुप्त हो गया और स्थूल अर्थ ही प्रचलित हो गया। समय-समय पर गीता में मनमाने तरीके से प्रक्षिप्त अंश जुड़ते गये और वास्तविकता से हम बहुत दूर होते गये।

📖 संगम युग में भगवान शिव ने जब प्रजापिता ब्रह्मा के तन रूपी रथ में अवतरित होकर ज्ञान दिया और धर्म की स्थापना की, तत् पश्चात् कलियुगी सृष्टि का महाविनाश हो गया और सतयुग स्थापन हुआ। अत: सर्व-महान परिवर्तन के कारण बाद में यह वास्तविक रहस्य लुप्त हो गया।

📖 फिर जब द्वापरयुग के भक्ति काल में गीता लिखी गयी तो बहुत पहले ( संगमयुग में) हो चुके इस वृतांत का रूपांतरण व्यास ने वर्तमानकाल का प्रयोग करके किया तो समयांतर में गीता-ज्ञान को भी व्यास के जीवन-काल में, अर्थात ” द्वापरयुग” में दिया गया और सत्य मान लिया गया। परन्तु इस भूल से संसार में बहुत बड़ी हानि हुई। अगर लोगों को यह रहस्य ठीक रीति से मालूम होता कि गीता-ज्ञान निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया जो कि श्रीकृष्ण के भी पारलौकिक पिता है और सभी धर्मो के अनुयायियों के परम पूज्य तथा सबके एकमात्र सदगति दाता तथा राज्य-भाग्य देने वाले हैं, तो सभी धर्मो के अनुयायी गीता को ही संसार का सर्वोत्तम शास्त्र मानते तथा उनके महाकाव्यों को परमपिता के महावाक्य मानकर उनको शिरोधार्य करते और वे भारत को ही अपना सर्वोत्तम तीर्थ मानते। साथ ही शिव जयंती को गीता-जयंती तथा गीता जयंती को शिव जयंती के रूप में भी मानते। वे एक ज्योतिस्वरूप, निराकार परमपिता, परमात्मा शिव से ही योग-युक्त होकर पावन बन जाते तथा उससे सुख-शांति की पूर्ण विरासत ले लेते। परन्तु आज उपर्युक्त सर्वोत्तम रहस्यों को न जानने के कारण और गीता माता के पति सर्व मान्य निराकार परमपिता शिव के स्थान पर गीता-पुत्र श्रीकृष्ण देवता का नाम लिख देने के कारण गीता का ही खंडन हो गया। और संसार में घोर अनर्थ, हाहाकार तथा पापाचार हो गया।

📖 लोग एक निराकार परमपिता की आज्ञा (मन्मनाभव अर्थात एक मुझ ही को याद करो) को भूलकर व्यभिचारी बुद्धि वाले हो गए हैं। आज फिर से उपर्युक्त रहस्य को जानकर परमपिता परमात्मा शिव से योग-युक्त होने से पुन: इस भारत में श्री कृष्ण और श्री राधा अथवा श्री लक्ष्मी नारायण का सुखदायी स्वराज्य स्थापन हो सकता है और हो रहा है।

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🦚 “निकट भविष्य में श्रीकृष्ण आ रहे हैं”

📰 प्रतिदिन समाचार-पत्रों में अकाल, बाढ, भ्रष्टाचार व लड़ाई-झगडे का समाचार पढने को मिलता है। प्रकृति के पांच तत्व भी मनुष्य को दुःख दे रहे हैं और सारा ही वातावरण दूषित हो गया है। अत्याचार, विषय-विकार तथा अधर्म का ही बोल-बाला है और यह विश्व ही “काँटों का जंगल” बन गया है। एक समय था जबकि विश्व में सम्पूर्ण सुख शांति का साम्राज्य था और यह सृष्टि फूलों का बगीचा कहलाती थी। प्रकृति भी सतोप्रधान थी और किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदायें नही थी। मनुष्य भी सतोप्रधान , सर्व-गुण संपन्न थे और आनंद ख़ुशी से जीवन व्यतीत करते थे। उस समय यह संसार स्वर्ग था, जिसे सतयुग भी कहते हैं इस विश्व में समृद्धि, सुख, शांति का मुख्य कारण था कि उस समय के राजा तथा प्रजा सभी पवित्र और श्रेष्ठाचारी थे इसलिए उनको सोने के रत्न-जड़ित ताज के अतिरिक्त पवित्रता का ताज भी दिखाया गया है। श्रीकृष्ण तथा श्री राधा सतयुग के प्रथम महाराजकुमार  और महाराजकुमारी थे जिनका स्वयंवर के पश्चात् ” श्री नारायण और श्री लक्ष्मी” नाम पड़ता है। उनके राज्य में ” शेर और बकरी” भी एक घाट पर पानी पीते थे, अर्थात पशु पक्षी तक सम्पूर्ण अहिंसक थे। उस समय सभी श्रेष्ठाचारी, निर्विकारी अहिंसक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तभी उनको देवता कहते हैं। जबकि उसकी तुलना में आज का मनुष्य विकारी, दुःखी और अशान्त बन गया है। यह संसार भी रौरव नरक बन गया है। सभी नर-नारी काम-क्रोधादि विषय-विकारों में गोता लगा रहे हैं। सभी के कंधे पर माया का जुआ है तथा एक भी मनुष्य विकारों और दुखों से मुक्त नहीं है।

◼️ अत: अब परमपिता परमात्मा, परम शिक्षक, परम सतगुरु परमात्मा शिव कहते हैं, “हे वत्सो! तुम सभी जन्म-जन्मान्तर से मुझे पुकारते आये हो कि – हे प्रभु हमें दुःख और अशांति से छुड़ाओ और हमें मुक्तिधाम तथा स्वर्ग में ले चलो। अत: अब मैं तुम्हें वापस मुक्तिधाम में ले चलने के लिए तथा इस सृष्टि को पावन अथवा स्वर्ग बनाने आया हूँ। वत्सो, वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है अब आप वैकुण्ठ ( सतयुगी पावन सृष्टि) में चलने की तैयारी करो अर्थात पवित्र और योग-युक्त बनो क्योंकि अब निकट भविष्य में श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) का राज्य आने ही वाला है तथा इससे इस कलियुगी विकारी सृष्टि का महाविनाश एटम बमों, प्राकृतिक आपदओं तथा गृह युद्ध से हो जायेगा। नीचे चित्र में श्रीकृष्ण को ” विश्व के ग्लोब” के ऊपर मधुर बंशी बजाते  हुए दिखाया है जिसका अर्थ यह है कि समस्त विश्व में “श्रीकृष्ण” ( श्रीनारायण) का एक छत्र राज्य होगा, एक धर्म होगा, एक भाषा और एक मत होगी तथा सम्पूर्ण खुशहाली, समृद्धि और सुख चैन की बंसी बजेगी।

◼️ बहुत-से लोगों की यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में आते हैं। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि श्रीकृष्ण तो सर्वगुण संपन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी  एवं पूर्णत: पवित्र थे। तब भला उनका जन्म द्वापर युग की रजो प्रधान एवं विकारयुक्त सृष्टि में कैसे हो सकता है ❔ श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए सूरदास ने अपनी अपवित्र दृष्टी को समाप्त करने की कोशिश की और श्रीकृष्ण- भक्तिन मीराबाई ने पवित्र रहने के लिए जहर का प्याला पीना स्वीकार किया, तब भला श्रीकृष्ण देवता, अपवित्र दृष्टी वाली सृष्टि में कैसे आ सकते हैं ❔ श्रीकृष्ण तो स्वयंवर के बाद श्रीनारायण कहलाये तभी तो श्रीकृष्ण के बुजुर्गी के चित्र नहीं मिलते। अत: श्रीकृष्ण सतयुगी पावन सृष्टि के प्रारम्भ में आये थे और अब पुन: आने वाले हैं।

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💥 “परमात्मा सर्व व्यापक नहीं है” एक महान भूल

◼️ परमात्मा सर्वव्यापी है, कण-कण में व्याप्त है अर्थात वह तो ठिक्कर-पत्थर, सर्प, बिच्छू, वाराह, मगरमच्छ, चोर और डाकू सभी में है!  कहाँ नहीं है❔ अब इस मान्यता की सत्यता की परख की जाए कि क्या ईश्वर कण कण में व्यापक है ❔ क्या हमारा विवेक इस बात को स्वीकार करता है❔

◼️ आज अगर कोई किसी को जानवर जैसा कहे तो उसे कितना अपमान महसूस होता है कि उसे जानवर जैसा कहा जब हम ईश्वर के लिए कहे कि वह जानवर में भी है, कूड़े-कचरे में भी है, सबमें है तो क्या यह ऊँचे से ऊँची हस्ती परमात्मा का अपमान नहीं है ?

◼️ अगर परमात्मा सभी में होते तो फिर इस दुनिया में दुःख अशांति क्यों है❔ लोग बीमार क्यों होते हैं❔सबके अन्दर भगवान है तो मन्दिर जाने की, धर्म शास्र पढ़ने की क्या जरूरत है? हममें भी परमात्मा है तो फिर हम उसको याद क्यों करते हैं, दु:खी क्यों होते हैं ❔

◼️ परमात्मा के लिए हम कहते तो हैं” तुम्ही हो माता-पिता तुम्ही हो ” पर वो सम्बन्ध जुटा नहीं पाते, शक्तियाँ नहीं ले पाते। क्योंकि परमात्मा का सही परिचय नहीं है। हम कहते हैं ठिक्कर , भित्तर हर जगह भगवान है। क्या किसी के अनगिनत माता , पिता होते हैं❔ अगर हो तो वो शख्स कितना दुविधा मे रहेगा। तो परमात्मा के कई रूप मानकरw पूरा मानव समाज दुविधा में है और दुःखी है।

◼️ क्या पिता कभी अपने पुत्रों में व्यापक होता है परमात्म तो सभी आत्माओं के परमपिता हैं अतः वह सब में व्यापक नहीं है।यदि परमात्मा  सर्व में व्यापक होता तो सब में उसके गुण भी तो व्यापक होते।

◼️ ऐसा थोड़े ही हो सकता है कि चीनी दूध में व्यापक हो परंतु उसका गुण मिठास व्यापक न हो या अग्नि किसी चीज़ में व्यापक हो और उसका गुण ऊष्मा उसमे व्यापक न हो।

◼️ आज तो आप देखते हैं कि हर इंसान में काम, क्रोध विकार दुःख, अशान्ति ही व्यापक है।सबमें माया सर्वव्यापक है यदि सबमें परमात्मा व्यापक  होता तो सबमें पवित्रता सुख शान्ति होनी चाहिए थी।

◼️ वैसे भी जब कभी हमें कोई व्यक्ति कोई बात बताता है और हमें उसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं होता है तब हम यही कहते हैं कि तुम छोड़ो ना। तुम क्यों बीच में पड़ते हो ऊपर वाला जाने, कभी गलती से भी हमने यह नहीं कहा कि नीचे वाला जाने या जो सबमें बैठा हुआ है वो जाने। अनजाने में भी मुख से यही सच्चाई निकल जाती है कि ऊपर वाला जाने।इसका मतलब यही होता है कि परमात्मा कहीं ऊपर है इसलिए तो उसकी महिमा में भी यह गाया जाता है- ऊँचा तेरा नाम, ऊँचा तेरा काम, ऊँचा तेरा धाम, ऊँचे से ऊँचा भगवान। जिसका धाम भी बहुत ही ऊँचा है, तभी श्रीमद्भ भगवद् गीता में भगवान यही कहते हैं कि मेरा धाम परमधाम है जहां सूर्य चाँद तारों की रोशनी पहूँच नहीं सकती ,वह स्वयं प्रकाशित है। साथ ही साथ उन्होंने श्रीमद्भ भगवद गीता में यह वादा भी दिया है–‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत……अर्थात जब-जब धर्म की अति ग्लानि होती है तब-तब मैं अवतरित होता हूँ। कहने का भाव यह है कि अधर्म के समय पर वह आएंगे, अगर वह पहले से ही यहीं हैं तो आएंगे कहाँ से ❔

◼️ अगर वे यहीं हैं तो उनके होते इतना अधर्म कैसे और फिर कौन आयेगा जो चारों और फैले हुए अधर्म का नाश करेगा ❔ ऐसे अनेक प्रश्न मन में आ सकते हैं।

❔ प्रकृति में भी यह विशेषता है कि अपने गुणों को परिवर्तित या रूपांतरित कर सकती है यदि अग्नि में लोहे को रख दो तो अग्नि के गुण लोहे में आ जाएंगे अर्थात संग का रंग लग जाएगा। तो परमात्मा जो सर्व गुणों में अनंत हैं वह हमारे अंदर ही कहीं बैठा है और उनके किसी गुण का रंग मनुष्य आत्मा को ना लगे ऐसा हो सकता है क्या ❓ अगर ऐसा नहीं होता तब फिर उनका मनुष्य में विराजमान होने का सवाल ही नहीं है।

◼️ परमात्मा को पारस भी कहा जाता है और पारस के संग में अगर हम बैठे हैं और हम लोहे के लोहे ही रह जाएं ,क्या ऐसा कभी हो सकता है❔

◼️ यदि परमात्मा सर्वव्यापी होते तो उसके शिवलिंग रूप की पूजा क्यों होती ❓

◼️ यदि वह यत्र-तत्र-सर्वत्र होते तो वह ‘दिव्य जन्म’ कैसे लेते, मनुष्य उनके अवतरण के लिए उन्हें क्यों पुकारते और शिवरात्रि का त्यौहार क्यों मनाया जाता ❔

◼️ यदि परमात्मा सर्व-व्यापक होते तो वह गीता-ज्ञान कैसे देते और गीता में लिखे हुए उनके यह महावाक्य कैसे सत्य सिद्ध होते कि “मैं परम पुरुष (पुरुषोतम) हूं, मैं सूर्य और तारागण के प्रकाश की पहुँच से भी परे परमधाम का वासी हूँ, यह सृष्टि एक उल्टा वृक्ष है और मैं इसका बीज हूँ, जो कि ऊपर रहता हूँ।

◼️ यह जो मान्यता है कि “परमात्मा सर्वव्यापी है” – इससे भक्ति, ज्ञान, योग इत्यादि सभी का खण्डन हो गया है, क्योंकि यदि ज्योतिस्वरूप भगवान का कोई नाम और रूप ही न हो तो उससे सम्बन्ध (योग) भला कैसे जोड़ा जा सकता है, न ही उनके प्रति स्नेह और भक्ति ही प्रगट की जा सकती है और न ही उनके नाम और कर्तव्यों की चर्चा ही हो सकती है जबकि ‘ज्ञान’ का तो अर्थ ही किसी के नाम, रूप, धाम, गुण, कर्म, स्वभाव, सम्बन्ध, उससे होने वाली प्राप्ति इत्यादि का परिचय है। अत: परमात्मा को सर्वव्यापक मानने के कारण आज मनुष्य ‘मन्मनाभाव’ तथा ‘मामेकं शरणं व्रज’ की ईश्वरीय आज्ञा पर नहीं चल सकते अर्थात बुद्धि में एक ज्योति स्वरूप परमपिता परमात्मा शिव की याद धारण नहीं कर सकते और उससे स्नेह सम्बन्ध नहीं जोड़ सकते,बल्कि उनका मन भटकता रहता है।परमात्मा चैतन्य है, वह तो हमारे परमपिता हैं, पिता तो कभी सर्वव्यापी नहीं होता।

◼️ अत: परमपिता परमात्मा को सर्वव्यापी मानने से ही सभी नर-नारी योग-भ्रष्ट और पतित हो गये हैं और उस परमपिता की पवित्रता-सुख-शान्ति रूपी बपौती (विरासत) से वंचित हो दुखी तथा अशान्त हैं।

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📚 परमात्मा के सर्वव्यापी होने की बात तो शास्त्रों में भी लिखी है तो क्या शास्त्र गलत हैं ❓
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◼️ शास्त्र गलत नहीं है लेकिन शास्त्रों में जिस भाव के साथ यह बात कही गई है वह भाव हमने यथार्थ रूप से समझा ही नहीं।

◼️ पहला भाव है ‘भय’:- शास्त्रों की रचना महान ऋषि मुनियों ने की है।कैसे ❓ जब ऋषि मुनि समाधी में बैठते थे तो उन्हें इस समाधि अवस्था में ज्ञान प्राप्त होता था और समाधि में वह आने वाले कलिकाल अर्थात कलयुग को देख सकते थे कि घोर पापाचार का युग आएगा और ऐसे समय में मनुष्य आत्माओं को पाप कर्मों से कैसे बचायें यह सवाल उनके सामने था तब भविष्य की गंभीर हालत को ध्यान में रखकर उन्होंने लोगों की धार्मिक आस्था को लेकर शास्त्रों में यह बात लिख दी की ‘हे मानव तुम जब पाप करते हो यह मत समझना कि तुझे कोई नहीं देखता है ,ईश्वर सब जगह है वह तुझे निरन्तर देख रहा है।’ उनकी भावना यही थी कि मनुष्य को यह भय सदा रहे कि भगवान मुझे देख रहा है और भय के कारण वह पाप कर्म ना करें।

◼️ दूसरा भाव है ‘प्रेम’:- भक्तों का यह जो कथन है कि – ‘परमात्मा तो घट-घट का वासी है’ इसका भी शब्दार्थ लेना ठीक नहीं है ।वास्तव में ‘घट’ अथवा ‘हृदय’ को प्रेम एवं याद का स्थान माना गया है । द्वापर युग के शुरू के लोगों में ईश्वर-भक्ति अथवा प्रभु में आस्था एवं श्रद्धा बहुत थी। कोई विरला ही ऐसा व्यक्ति होता था जो परमात्मा को ना मानता हो।अत: उस समय भाव-विभोर भक्त यह कह दिया करते थे कि ईश्वर तो घट-घट वासी है अर्थात उसे तो सभी याद और प्यार करते है और सभी के मन में ईश्वर का चित्र बस रहा है ।इन शब्दों का अर्थ यह लेना कि स्वयं ईश्वर ही सबके ह्रदयों में बस रहा है, भूल है।

◼️ अतः भावनात्मक रूप से यह कहना कि भगवान मेरे साथ हैं मेरे मन- बुद्धि ह्रदय में बसे हैं, उचित है , ठीक है लेकिन सिद्धान्त रूप से गलत है।

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