“राजयोग मेडिटेशन कोर्स तिसरा दिन”

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“राजयोग मेडिटेशन कोर्स तिसरा दिन”

📚 “राजयोग का आधार तथा विधि”

◼️ सम्पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने के लिए और शीघ्र ही आध्यात्म में उन्नति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को राजयोग के निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है, अर्थात चलते-फिरते और कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की स्मृति में स्थित होने की जरुरत है।

◼️ निरन्तर योग के बहुत लाभ हैं और उस द्वारा ही मनुष्य सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इसलिए विशेष रूप से योग में बैठना आवश्यक है। इसलिए चित्र में दिखाया गया है कि परमात्मा को याद करते समय हमें अपनी बुद्धि सब तरफ से हटाकर एक ज्योतिर्बिंदु परमात्मा शिव से जुटानी चाहिए।

◼️ मन चंचल होने के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार अथवा शास्त्र और गुरुओं की तरफ भागता है, लेकिन राजयोग अभ्यास के द्वारा हमें इसको एक परमात्मा की याद में ही स्थित करना है! अत: देह सहित देह के सर्व-सम्बन्धों को भूल कर आत्म-स्वरूप में स्थित होकर, बुद्धि में ज्योतिर्बिंदु परमात्मा शिव की स्नेहयुक्त स्मृति में रहना ही वास्तविक योग है, जैसा की चित्र में दिखलाया गया है।

◼️ कई मनुष्य योग को बहुत कठिन समझते हैं, वे कई प्रकार की हाथ क्रियाएं, तप अथवा प्राणायाम करते रहते हैं।

◼️ वास्तव में “योग” अति सहज है। जिस प्रकार एक बच्चे को अपने देहधारी पिता की सहज और स्वत: याद रहती है। वैसे ही आत्मा को अपने पिता परमात्मा की याद स्वत: और सहज होनी चाहिए।

◼️ इस अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए की “मैं एक आत्मा हूँ। मैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव की अविनाशी सन्तान हूँ, जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी हैं। शांति के सागर, आनंद के सागर, प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमान हैं” ऐसा मनन करते हुए मन को ब्रह्मलोक में परमपिता परमात्मा शिव पर स्थित करना चाहिए और परमात्मा के दिव्य-गुणों और कर्त्तव्यों का ध्यान करना चाहिए।

◼️ जब मन इस प्रकार की स्मृति में स्थित होगा तब सांसारिक संबंधों अथवा वस्तुओं का आकर्षण अनुभव नहीं होगा। जितना ही परमात्मा द्वारा सिखाये गये ज्ञान में निश्चय होगा, उतना ही सांसारिक विचार और लौकिक संबंधियों  की याद मन में नहीं आयेगी! और उतना ही अपने स्वरूप का परमप्रिय परमात्मा के गुणों का अनुभव होगा!

◼️ आज बहुत से लोग कहते हैं कि हमारा मन परमात्मा की स्मृति में नही टिकता। अथवा हमारा योग नहीं लगता।

◼️ इसका एक कारण तो यह है की वे स्वयं को “आत्मा” निश्चय नहीं करते। आप जानते हैं कि जब बिजली के दो तारों को जोड़ना होता है तब उनके ऊपर के रबड़ को हटाना पड़ता है, तभी उनमे करंट आता है। इस प्रकार, यदि कोई निज देह के भान में होगा तो उसे भी अव्यक्त अनुभूति नहीं होगी। उसके मन की तार परमात्मा से नहीं जुड़ सकती।

◼️ दूसरी बात यह है की वे तो परमात्मा को नाम-रूप से न्यारा व् सर्वव्यापक मानते हैं। अत: वे मन को कोई ठिकाना भी नहीं दे सकते। परन्तु अब तो यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का दिव्य-नाम शिव, दिव्य-रूप ज्योति-बिंदु और दिव्यधाम परमधाम अथवा ब्रह्मलोक है। अत: वहाँ मन को टिकाया जा सकता है।

◼️ तीसरी बात यह है कि उन्हें परमात्मा के साथ अपने घनिष्ठ सम्बन्ध का भी परिचय नहीं है। इस कारण परमात्मा के प्रति उनके मन में घनिष्ठ स्नेह भी उत्पन्न नहीं होता। अब यह ज्ञान हो जाने पर हमें ब्रह्मलोक के वासी परमप्रिय परमपिता शिव-ज्योती-बिंदु की स्मृति में रहना चाहिए

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📚 “राजयोग के स्तम्भ एवं नियम” 📚

◼️ वास्तव में ‘योग’ का अर्थ – ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर, सर्व शक्तिवान, पतितपावन परमात्मा शिव के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ना है,ताकि आत्मा को भी सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम, पवित्रता, शक्ति और दिव्यगुणों की विरासत प्राप्त हो। योग के अभ्यास के लिए उसे आचरण सम्बन्धी कुछ नियमों का अथवा दिव्य अनुशासन का पालन करना होता है क्योंकि योग का उद्धेश्य मन को शुद्ध करना, दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना और मनुष्य के चित्त को सदा प्रसन्न अथवा हर्ष-युक्त बनाना है। दूसरे शब्दों में योग की उच्च स्थिति किन्हीं आधारभूत स्तम्भों पर टिकी होती है।

1️⃣ राजयोग का पहला महत्वपूर्ण स्तंभ हैं!

🦚🦚 ब्रह्मचर्य या पवित्रता 🦚🦚

◼️ योगी शारीरिक सुन्दरता या वासना-भोग की ओर आकर्षित नहीं होता,क्योंकि उसका दृष्टि कोण बदल चुका होता है। वह आत्मा की सुंदरता को ही पूर्ण महत्व देता है। उसका जीवन ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द के वास्तविक अर्थ में ढला होता है। अर्थात उसका मन ब्रह्म में स्थित होता है और वह देह की अपेक्षा विदेही (आत्माभिमानी) अवस्था में रहता है। अत:वह सबको भाई-भाई के रूप में देखता है और आत्मिक प्रेम व सम्बन्ध का ही आनन्द लेता है। यहाँ आत्मिक स्मृति और ब्रह्मचर्य इसे ही महान शारीरिक शक्ति, कार्य-क्षमता, नैतिक बल और आत्मिक शक्ति देते हैं। यह उसके मनोबल को बढाते हैं और उसे निर्णय शक्ति, मानसिक संतुलन और कुशलता देते हैं।

2️⃣ राजयोग का दूसरा महत्वपूर्ण स्तंम्भ है!

🥗🥗 सात्विक आहार 🥗🥗

◼️ मनुष्य जो आहार करता है उसका उसके मस्तिष्क पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। इसलिए योगी माँस, अंडे उत्तेजक पेय या तम्बाखू नहीं लेता। अपना पेट पालने के लिए वह अन्य जीवों की हत्या नहीं करता, न ही वह अनुचित साधनों से धन कमाता है। वह पहले भगवान को भोग लगाता और तब प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करता है। भगवान द्वारा स्वीकृत वह भोजन उसके मन को शान्ति व पवित्रता देता है, तभी ‘जैसा अन्न वैसा मन’ की कहावत के अनुसार उसका मन शुद्ध होता है और उसकी कामना कल्याणकारी तथा भावना शुभ बनी रहती है।

3️⃣ राजयोग का तिसरा महत्वपूर्ण स्तंम्भ है!

🙎🏻‍♂️🙎🏻‍♂️ ‘सत्संग’ 🙎🏻‍♂️🙎🏻‍♂️

◼️ जैसा संग वैसा रंग’ – इस कहावत के अनुसार योगी सदा इस बात का ध्यान रखता है कि उसका सदा ‘सत्-चित-आनन्द’ स्वरूप परमात्मा के साथ ही संग बना रहे। वह कभी भी कुसंग में अथवा अश्लील साहित्य अथवा कुविचारों में अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता। वह एक ही प्रभु की याद व लग्न में मग्न रहता है तथा अज्ञानी, मिथ्या-अभिमानी अथवा विकारी, देहधारी मनुष्यों को याद नहीं करता और न ही उनसे सम्बन्ध जोड़ता है।

4️⃣ राजयोग का चौथा महत्वपूर्ण स्तम्भ है!

🛕🛕 दिव्यगुण 🛕🛕

◼️ योगी सदा अन्य आत्माओं को भी अपने दिव्य-गुणों, विचारों तथा दिव्य कर्मो की सुगन्ध से अगरबत्ती की तरह सुगन्धित करता रहता है, न कि आसुरी स्वभाव, विचार व कर्मों के वशीभूत होता है। विनम्रता, सन्तोष, हर्षितमुखता, गम्भीरता, अन्तर्मुखता, सहनशीलता और अन्य दिव्य-गुण योग का मुख्य आधार है। योगी स्वयं तो इन गुणों को धारण करता ही  है, साथ ही अन्य दुखी भूली-भटकी और अशान्त आत्माओं को भी अपने गुणों का दान करता है और उसके जीवन में सच्ची सुख-शान्ति प्रदान करता है। इन नियमों को पालन करने से ही मनुष्य सच्चा योगी जीवन बना सकता है तथा रोग, शोक, दुःख व अशान्ति रूपी भूतों के बन्धन से छुटकारा पा सकता है।

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🙎🏻‍♂️ निरंतर राजयोग का अभ्यास करने से हमें जीवन में प्राप्त होती हैं यह अष्ट शक्तियाँ”

🧘🏻‍♂️ राजयोग के अभ्यास से अर्थात मन का नाता परमपिता  परमात्मा के साथ जोड़ने से, अविनाशी सुख-शांति की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही कई प्रकार की अध्यात्मिक शक्तियाँ भी आ जाती है इनमें से आठ मुख्य और बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

◼ अष्ट शक्तियों का विकास ◼

1⃣ 💪🏻 सहनशक्ति :- यह शक्ति भी है तो सहनशीलता का गुण भी है।जब हम इस गुण को अपने जीवन में धारण करते है तो यह धीरे- धीरे शक्ति का रूप ले लेती हैं।यह शक्ति हमारे अंदर आत्मविश्वास पैदा करती हैं, जो व्यक्ति सहन करता उसका चरित्र हमेशा ऊंचा दर्शाया जाता हैं।सहनशक्ति ही महानता का आधार है।

2⃣ 🌊 समाने की शक्ति:- लोग सहन तो कर लेते है, लेकिन बात को अपने मे समा नहीं पाते है जिसके कारण जिनसे उनकी बनी हुई बात भी बिगड़ जाती हैं।इस शक्ति की कमी होने के कारण हमारे पारवारिक संबंधों में कड़वाहट आ जाती हैं।सहन किया ये तो महानता हो गई।….परन्तु… सहनशक्ति के साथ- साथ समाने की शक्ति भी आवश्यक हैं।जिस प्रकार सागर अनेक नदियों का किंचड़ा वाला पानी समा लेता है उसी प्रकार हमें भी विशाल ह्रदय बनकर बातों को समा लेना चाहिए।

3⃣ 🔎 परखने की शक्ति :- आज चारों ओर छल कपट का वातावरण बना हुआ है।ऐसे समय हमें परखने की शक्ति की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से व्यक्ति धोखा खा जाता हैं। प्रैक्टिकल जीवन जीने के लिए हमें आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता होती है, ज्ञान नही होने से असली /नकली क्या है परख नही सकते।

4⃣ ⚖ निर्णय करने की शक्ति:- परखने की शक्ति हो और निर्णय करने की शक्ति न हो तो व्यक्ति को बहोत पश्चाताप 🤦🏻‍♂करना पड़ता हैं। हमारी बुद्धि का कांटा एकाग्र है और परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है तो हम कभी भी परखने और और निर्णय के समय धोखा नहीं खा सकते है और सही समय पर सही निर्णय लेकर सफलता स्वरूप बन जाते है।

5⃣ 👮‍♂️ सामना करने की शक्ति:- राजयोगी, व्यक्ति का सामना नहीं करता है लेकिन परिस्थितियों का सामना वह बड़ी सहज रिती से कर लेता हैं।राजयोग से ज्ञान हो जाता हैं कि परिस्थिति का किस विधि से सामना करना है।

6⃣ 🤝🏻 सहयोग की शक्ति:- जीवन में सहयोग की शक्ति भी बहुत आवश्यक हैं। एक -दूसरे
को हम सहयोग तभी दे सकते है जब हमारे संस्कार दूसरे से मेल खाते हैं।अगर संस्कार नही मेल खाते हैं।अगर संस्कार नहीं मिलते हैं तो सहयोग लेना और देना दोनों ही मुश्किल हो जाता हैं।

7⃣ 🐢 विस्तार को संकीर्ण करने की शक्ति:- कई बार हम देखते हैं कि बात तो छोटी सी होती हैं लेकिन विस्तार करते- करते उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता हैं और मनुष्य के जीवन में परेशानियां आनी शुरू हो जाती हैं।
जैसे कछुआ 🐢 कोई भी परिस्थिति आने पर स्वयं को संकीर्ण भी कर लेता है और आवश्यकता पड़ने पर विस्तार भी कर लेता है।

8⃣ 💼 समटने की शक्ति:- जब हम घर से बाहर जाते है तो आवश्यकता की वस्तुओं को लेते है।उसी प्रकार इस जीवन रूपी यात्रा में हमारी मूल्यवान वस्तुएं हैं पुण्य कर्म का खाता, दुआओं का खाता, श्रेष्ठ विचार, गुण, शक्तियां का खाता तो हमें इसकी संभाल करनी होती हैं और इसे दूषित संग से बचाना भी होता हैं।

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